हमारा गणतंत्र दिवस और भारतीयता पर विचार

भारत के लिए गणतंत्र कोई नया विचार नहीं है । गणतंत्र के विषय में यदि यह कहा जाए कि इस संसार को गणतंत्र का शुद्ध विचार और सिद्धांत भारत की देन है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । भारत की प्राचीन परंपरा में गणतंत्र के माध्यम से ही शासन चलता था , जिसमें जनसहभागिता का पूरा ध्यान रखा जाता था । आज के विश्व की चाहे जितनी भी राजनीतिक प्रणालियां या शासन पद्धतियां हों , उन सबसे उत्तम भारत का गणतंत्र संबंधी सिद्धांत रहा है । भारत ने संसार को एक राजा के राज्य में रहने की दीर्घकालीन परंपरा दी है। इस राजा को भारत ने चक्रवर्ती सम्राट का नाम दिया था । यह चक्रवर्ती सम्राट वही व्यक्ति होता था , जिसके राज्य में प्रजाजन दुखी नहीं होते थे , और सर्व प्रकार से सुख शांति का अनुभव करते थे । एक प्रकार से जिस राजा के राज्य में पक्षपात शून्य न्याय होता हो और प्रजाजन पूर्ण सुख – शांति का अनुभव करते हों , इतना ही नहीं अन्य प्राणियों के साथ भी मित्रवत व्यवहार करते हों , ऐसे राजा को अपना मुखिया मानकर अन्य राजा उसको चक्रवर्ती सम्राट घोषित करते थे । आज के यूएन से भी उत्तम विचार था – हमारा चक्रवर्ती सम्राट होने का यह राजनीतिक सिद्धांत ।हमारे वर्तमान संविधान ने भारत में ऐसे ही गणतांत्रिक शासन की स्थापना करने का संकल्प लिया । यह अलग बात है कि हम भारतीय संविधान के मर्म को नहीं समझ पाए । इसका कारण केवल यह रहा है कि भारतीय संविधान को लागू करने वाले लोग राजनीतिक विवेक और राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों से ही निरपेक्ष रहे । उनकी निरपेक्षता संविधान के प्रति उनकी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण है । जो धर्म के मर्म को न जानता हो और उससे तटस्थ या कहें कि आपराधिक दूरी बनाकर चलने में ही अपना भला समझता हो , वही तो धर्मनिरपेक्ष होता है । इस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता ने हमारे जनप्रतिनिधियों को राष्ट्र धर्म से शून्य बना दिया । जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत देश गणतंत्र के जिस रास्ते पर चलने के लिए संकल्पित हुआ था , उस पर चल तो आज भी रहा है , परंतु उसके उतने अच्छे परिणाम आज तक नहीं प्राप्त कर पाया है , जितने अच्छे परिणामों की अपेक्षा हमारे संविधान निर्माताओं ने इस गणतंत्र से की थी । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत में आज तक भारतीयता का विकास करने के लिए सभी राजनीतिक दल एकमत नहीं है । भारतीयता की सभी राजनीतिक दलों की अपनी – अपनी अलग अलग परिभाषा है और उस परिभाषा के अनुसार कोई आतंकवादियों से हाथ मिला कर उन्हें भी देश की मुख्यधारा में जोड़ कर चलने का समर्थक है तो कोई देश के टुकड़े – टुकड़े करने का संकल्प लेने वाले लोगों को भी देश का सम्मानित नागरिक मानने की बात करता है । सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले लोग यह नहीं जानते कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए कुसंस्कारी लोगों का विनाश किया जाना आवश्यक होता है । हम भारतीयता का एक सर्व सम्मत अर्थ निकालने में यदि असफल रहे हैं और यह नहीं समझ पाए हैं कि आतंकवादी कौन है? – देशद्रोही कौन है ? – और देश के टुकड़े टुकड़े करने वाले की सोच को राष्ट्रघाती ही कहा जाना उचित है , तो यह समझ लेना चाहिए कि हम अभी भी राष्ट्रीय भटकाव की स्थिति में है । जिस देश की राष्ट्रीयता भटकाव की स्थिति में हो – वह कितना गणतंत्रात्मक विचार रखता होगा ? – यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।विद्वानों का मत है कि भारतीयता स्वर्ग से उतरा कोई स्वांग नहीं है , अपितु भारतीयता संकल्पपूर्वक धारण किया हुआ धर्म है।

भारतीयता कह देने से कोई एक जाति अथवा कोई एक वर्ग का अर्थ चरितार्थ नहीं होता है। समष्टि रूप में भारतीयता भारत में वासित समस्त जातियों, समस्त समुदायों एवं समस्त वर्गों द्वारा स्वीकार्य ऐसा सर्वोपरि भाव है, जिसमें भारत में वासित समस्त जातियां , समस्त समुदाय एवं समस्त वर्ग की पहचान विलीन हो गई है। कहने का तात्पर्य भारतीयता जाति, समुदाय और वर्ग के ऊपर की बात है। भारतीयता के अगले क्रम में भारतीय राष्ट्रीयता आती है। वैसे तो भारत के संदर्भ में राष्ट्रीयता का अभिप्राय ही भारतीय है। भारतीय होना ही भारतीय राष्ट्रीयता से बंधना है। हम भारतीय हैं अर्थात हम राष्ट्रीय हैं। भारतीय होना और राष्ट्रीय होना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विश्व में हमारी पहचान भारतीय होने से है और भारतीय होने की हमारी ‘गारंटी’ भारतीय राष्ट्रीयता से कटिबद्ध होने पर है। आज हमारे सामने भारतीय समाज की तीन पीढ़ियां अवस्थित हैं- एक 75 वर्ष से ऊपर की, एक 50 वर्ष से नीचे की और एक नितांत युवा पीढ़ी लगभग 20 वर्ष के आसपास की। ये तीन पीढ़ियां महज पीढ़ियां नहीं अपितु भारतीय राष्ट्रीयता के सौंदर्य को भास्वरित बनाने वाली चमक भी है। 75 वर्ष और इसके ऊपर की पीढ़ी ने परतंत्र भारत के साथ-साथ भारत को स्वतंत्र होते हुए भी देखा है। जबकि 50 वर्ष के नीचे की पीढ़ी ने स्वतंत्र भारत में तो जन्म लिया है मगर फिर भी इस पीढ़ी ने अपने अग्रजों से जाना है कि किन कठिनाइयों से भारत ने स्वतंत्रता अर्जित की है। जबकि 20 वर्ष के आसपास की नितांत युवा पीढ़ी स्वतंत्र भारत में रहते हुए भी स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थों से न केवल अनभिज्ञ है अपितु सघन भौतिकवाद, बाजारवाद और वैश्वीकरण की तीव्र प्रक्रिया में उलझकर भारतीय राष्ट्रीयता के बहुमूल्य संदर्भों से भी अपरिचित बनी हुई है। अतएव वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि उक्त तीनों पीढ़ियों को कैसे एक स्थान पर बैठाया जाए, जिससे कि भारतीय राष्ट्रीयता के तारतम्य में उक्त पीढ़ियों के बीच पारस्परिक संवाद जन्म ले सके। भारतीय राष्ट्रीयता की अस्मिता का भान कराने वाला एक बड़ा कारक हमारी स्वतंत्रता का तो है ही इसके उपरांत सदियों पुरानी हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, परदुःखकातरता से लिप्त हमारी संवेदनाएं, युद्धों को टालने वाली और मानव मात्र के संदर्भ में हमारी अहिंसक विचारधाराएं , अतीत में प्रकाशित हमारे संधि प्रस्तावों के अभिलेख इत्यादि भी भारतीय राष्ट्रीयता की अस्मिता को सक्रियता देने वाले बड़े कारक हैं। आज की सभी राजनीतिक प्रणालियां एक बात पर जाकर सहमत हो रही हैं कि यह जो सांसारिक धन संपदा, जमीन जायदाद हैं – यह व्यक्ति की न होकर समाज की है , राज्य की है । इन भौतिक राजनीतिक प्रणालियों का ऐसा चिंतन यदि है तो यह भारत की राजनीतिक चिंतन प्रणाली का उच्छिष्ट- अवशेष मात्र है। भारत की गणतंत्रात्मक राजनीतिक चिंतन प्रणाली में जमीन – जायदाद को व्यक्ति का तो माना ही नहीं गया है साथ ही समाज और राज्य का भी न मानकर उसे परमपिता परमेश्वर का माना गया है ।राजा भी इस प्रकार की व्यवस्था में किसी का प्रतिनिधि है, वह स्वयंभू नहीं है। उसके ऊपर भी किसी का शासन है और वह उस सब के शासक का प्रतिनिधि बनकर हम पर शासन कर रहा है ,केवल इसलिए शासन कर रहा है कि वह सबको उस परमपिता परमेश्वर की भांति न्याय प्रदान कर सकें। इसी बात को स्पष्ट करते हुए हमारे ईशावास्योपनिषद के ऋषि ने कहा है कि – त्येन त्यक्तेन भुंजीथा —– अर्थात तू इस संपत्ति को , धन ऐश्वर्य को त्याग भाव से ग्रहण कर । इस पर अपना अधिकार स्थापित मत कर ।जब व्यक्ति व्यक्ति की और व्यक्ति से लेकर राजा तक की यह सोच हो जाती है कि यह सब धन ऐश्वर्य या राज्य – ऐश्वर्य मेरा न होकर किसी और का है तो राष्ट्र में ‘ ट्रस्टी भाव ‘ उत्पन्न होता है और उस ‘ ट्रस्टी भाव ‘ में जीने से एक महान संस्कृति का निर्माण होता है । जिसमें सब के अधिकारों की सब को सामूहिक रूप से चिंता होती है, कोई अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ता , अपितु दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्यों को निभाता है ।उस कर्तव्यवाद से ही राष्ट्र महान बनता है। उसकी संस्कृति की महानता प्रकट होती है। गणतंत्र का यह पवित्र स्वरूप ही उसकी चरमावस्था में प्रकट होता है । भारत इसी गणतांत्रिक स्वरूप के गणतंत्र का उपासक राष्ट्र रहा है । स्वतंत्रता की प्रभात बेला में जब वह संविधान बना रहा था तो उस समय इसके संविधान निर्माताओं ने भी ऐसे ही गणतंत्रात्मक शासन की स्थापना का संकल्प लिया था । उनका सपना था कि हम एक ऐसा गणतंत्र बनाएंगे , जिसमें भारतीयता प्रकट होगी और हमारा सारा का सारा राष्ट्र एक ही स्वर से एक ही गीत गाता होगा। पर हम तो आज वंदेमातरम पर भी लड़ रहे हैं । वंदेमातरम् पर लड़ने वाले लोग कौन सी भारतीयता का निर्माण कर पाए हैं? – और कौन से राष्ट्रीय स्वरूप की आराधना कर रहे हैं ? – गणतंत्र दिवस की इस पवित्र बेला पर आज यह समझने की आवश्यकता है । सचमुच आज हमें भारतीयता को तराशने की आवश्यकता है ।

लेखक- राकेश कुमार आर्य
साभार- http://www.pravakta.com

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